Sunday, May 3, 2020

मंथन

मंथन

घटनाएं कभी-कभी जिंदगी का रुख बदल देती है। हम सभी के जीवन में कोई ऐसी बात घट जाती है जो पूरे जीवन की दिशा को बदल देती है। सोचिए ना कुछ पुराने किस्से, कुछ यादें सब हमको यह रूबरू कराती है, कि हम पहले तो ऐसे जीते थे पर इस घटना के बाद हमारा नजरिया ही बदल गया। जैसे कोई एक घटनावश किसी व्यक्ति ने पूरा पहाड़ ही खोद दिया। कोई अपने परिवार में आई हुई समस्या से एक ऐसी वस्तु का निर्माण कर दिया जो सबके लिए उपकारी हो गया। समाज में एक घटना से पूरे सामाजिक स्तर पर बदलाव शुरू हो गया। इस तरह हर घटना हमको विचार करने के लिए अवसर प्रदान करती है की कहीं कोई गलती तो नहीं हो रही हमसे? या हम इससे बेहतर जी नहीं सकते क्या? कहीं कुछ बहुत जरूरी और अहम बात छूट तो नहीं गई?
घटनाएं हर स्तर पर घटती रहती है कुछ व्यक्तिगत होती है तो कुछ पारिवारिक घटनाएं, कुछ सामाजिक तो कुछ प्राकृतिक। इन सभी का प्रभाव भी हर स्तर पर दिखाई पड़ता है।
ऐसी ही एक घटना आज संपूर्ण मानव जाति के सामने आई है "कोरोना"। एक विषाणु, जिसे हम देख भी नहीं सकते। यह विषाणु से जो समस्याएं पैदा हो रही है वह घटना के रूप में देखें, तो हमारा ध्यानाकर्षण ही करा रही है कि हम कोई गलती तो नहीं कर रहे, हम इससे बेहतर जी सकते हैं क्या? क्या इस भाग दौड़ में कोई जरूरी और अहम बात छूट तो नहीं रही?
आइए देखते हैं क्या हो रहा हैं आखिर।

प्रकृति:-

इन दिनों जिस तरह प्रकृति में बदलाव आ रहा है, उस से समझ में आता है कि प्रकृति में खुद को ठीक करने की एक अद्भुत व्यवस्था है। जैसे ही मानवजाती का हस्तक्षेप कम हुआ, प्रकृति अपने आप ही संतुलित हो रही है। उदाहरण के रूप में नदियों का पानी साफ हो रहा है, हवा की गुणवत्ता सुधार रही है, यहां तक कि ओजोन की परत में जो छेद हो रखा है वह भी भर रहा है। इतने बढ़िया परिणाम, वह भी हमारे कुछ किए बिना। क्या हमसे प्रकृति को समझने में कहीं चूक तो नहीं हो गई? सोचो यदि ऐसे ही प्रकृति साफ बनी रहे बिना कोई प्रदूषण के तो! जो वातावरण हमारे लिए पोषक भी हो एवम् पूरक भी हो तो। क्या इसके लिए हमको कोई कदम नहीं उठाने चाहिए या नहीं? क्या प्रकृति के नियमो को समझ कर ऐसा जिया जा सकता है जिस से हम भी बने रहे, प्रकृति भी बनी रहे हमेशा हमेशा के लिए? आने वाली सभी पेढ़ियो को उत्तरोत्तर बेहतर से बेहतर हवा, पानी मिले यह संभव हो सकता है क्या? प्रकृति में जो तापमान है या जो दबाव है, ऋतुएं है एवम् खनिज है, क्या हम उसे संतुलित बने रहने में कोई सहयोग कर सकते है? क्या प्रकृति को संतुलित बने रहने के लिए मानवजाती सहयोग करना चाहिए? यह सब सवाल है मानव जाति के लिए। यदि इन सभी सवालों का उत्तर यह आता है हां, हमे समझना है कि कैसे हम मिट्टी, धातु, खनिज, वनस्पति, जीव जानवर सभी प्रकृति कि अवस्था के साथ पूरकता के साथ जी पाए। तो उसके साथ जीने के को नियम है उसे समझना पड़ेगा। जैसे जैसे समझ में आएगा, हम वैसे वैसे अपनी पूरकता निभाते जाएंगे और अक्षुण्ण रूप से हम साथ साथ जी पाएंगे।

समाज :-

इन दिनों कोरोना महामारी के कारण "सामाजिक दूरी" शब्द को हम पहली बार महसूस कर रहे है। मूल में आशय तो भौतिक दूरी का ही है, एक दूसरे के पास आने में एक निश्चित अंतर बना कर रखना। इन सब के साथ ही सभी अपने परिवार में ही रहने के लिए बाध्य हो गए। हमारे गली, मोहल्ले, बाजार, मिलना जुलना, त्योहार सभी थम गए। हालाकि इंटरनेट के आविष्कार से हम एक दूसरे को देख लेते है, बातचीत कर लेते है। पर फिर भी जब पता चलता है कि हमारा कोई अपना परेशानियों से घिरा है लगता है दौड़ के उसके पास पहोंचा जाए। पर इन दिनों की परिस्थिति के कारण हम मिल भी नहीं सकते। यहां तक आखरी समय में अपने स्वजन कि मृत्यु पर भी नहीं जा पा रहे। क्या यह सब हमको यह ध्यान नहीं दिला रहा को हमको सामाजिकता की कितनी जरूरत है? क्या हम बिना संबंधों के निर्वाह किए जी पाएंगे? मान लो हमको जो भी वस्तुएं चाहिए वह सब एक जगह उपलब्ध करा दिए जाए, फिर भी किसी अपने के लिए कुछ करने का, उनको सहयोग करने का या उनके साथ ममता, स्नेह, सम्मान आदि मूल्यों का निर्वाह किए बिना हम तृप्त हो पाएंगे? क्या इसकी कमी खलती है? क्या अपनों के साथ जीना अपनी कोई भी भौतिक आवश्यकता से ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है? क्या हमे इन संबंधों में कैसे तृप्ति पूर्वक जीना यह समझना आवश्यक लगता है? क्या हम संबंधों को समझ कर उसे अच्छे से निर्वाह करना चाहते है?

परिवार :-

सामाजिक दूरी के बाद आता है परिवार। आज हम सब लोग जिन भी लोगो के साथ घर में है वह है परिवार। यहां तक कि जो लोग जहां फसे है, वहां से अपने परिवार तक ही पाहोंचना चाहते है। यहां जो अपने परिवार के साथ है, वह परिवार में ही अपना समय कुछ करते हुए बिता रहे है। परिवार में जो सदस्य है उनके साथ भी निर्वाह होना है, व्यहवार होना है और उसको समझना भी जरूरी है यह ध्यान जा रहा है। परिवार को छोड़कर बाहर जी लेंगे यह हो नहीं पाएगा यह भी समझ आ रहा है कि नहीं? यदि परिवार में जीना है तो उसे समझना, उसमे अपने जिम्मेदारी को समझना यह भी एक जरूरत है कि नहीं? उसके साथ परिवार कि मानसिक एवम् भौतिक जरूरतों को पूरी करना यह भी जरूरी है कि नहीं? यह सब इस समय ध्यान जाता है कि नहीं?

मानव :-

इस समय स्वास्थ्य संबंधी जो विपदा आ पड़ी है उसमे हमको यह सोचने का भी अवसर मिला है कि आखिर कार में क्या हूं? मै क्या चाहता हूं? मै खुश रहना चाहता हूं तो उसमे मैंने अभी तक जो प्रयास किए उसमे कहा तक पहुंचा? जो भी चीजे मुझे चाहिए थी वह अब ना मिलने पर भी क्या में खुश हूं? क्या मै कुछ भी नहीं करता हूं और अपने कर्तव्यों से भागता हूं तो क्या उस से खुश हूं? आखिर क्या है जो छूट रहा है? क्या मै जो चाहता हूं उसे में समझकर पा सकता हूं? क्या सभी जो चाहते है वह पा सकते है? क्या हम सभी एक जैसा ही चाह रहे है? इन सब प्रश्नों से मुझे समझना है यह निश्चय बन रहा है क्या?

व्यवस्था :-

आज इस घटना से एक ध्यान तो गया की हमारी मूलभूत जरुरते क्या है? जैसे हमे शुद्घ हवा, पानी, अन्न, औषधि ये सब चाहिए जो हमारे शरीर को स्वस्थ्य बनाए रखे। क्या हमे रोटी, कपड़ा, मकान के लिए आवश्यक वस्तुएं सरलता से मिल पाए ऐसी व्यवस्थाएं है क्या? जैसे आज की स्थिति में हमको सब्जी, फल, दूध, तेल ये सब चीजें आसानी से उपलब्ध है क्या? क्या इन चीजों को हम तक पहोंचाने में कोई परेशानी हो रही है? यदि यह सारी चीजे हमारे आस पास नजदीक में ही उपलब्ध हो जाए तो कैसा रहेगा? यदि हम सब इन उत्पादनों में कोई सहयोग कर पाते तो कैसा होता? क्या हमारा परिवार इन चीजों में से कुछ उत्पादन कर पाए तो कैसा होगा?
आज बहुत सारी वस्तुओं के बिना हम जी रहे है। नाही कोई रेस्टोरेंट खुला है, नाही कोई सिनेमा हॉल। हम घर में ही नए नए पकवान बने रहे है, नए सिरे से नए काम सीख रहे है। क्या हम व्यवस्था को समझ कर हमसे को अव्यवस्था खड़ी हुई है उसपे पुनर्विचार कर नहीं सकते? क्या मानवजाती, मानव को समझ कर और इस पूरे धरती पे मानव कि भूमिका को समझ कर साथ साथ उत्सवित होकर जी सकते है?

मानव जाति को सौभाग्य से इन सभी को समजने के लिए एक प्रस्ताव उपलब्ध है। श्री ए.नागराज जी द्वारा प्रस्तावित मध्यस्थ दर्शन (सह अस्तित्ववाद) इस धरती पर रहने वाले सभी मानव के समझने एवम् नित्य उत्सव पूर्वक साथ साथ जीने के लिए है। यदि इस घटना से हमे खुद को और हम से जुड़े हुए सभी पहलू को समझने की आवश्यकता लगती है तो इसे समझ ने के लिए प्रयास करते है। यही इस घटना कि सार्थकता हो सकती है।

लेखन एवम् जिम्मेदारी
जिगर
अध्येता: - मध्यस्थ दर्शन ( सह अस्तित्ववाद)
अधिक जानकारी हेतु:-
 http://madhyasth-darshan.info/


Friday, September 30, 2016

उम्मीद

आज शाम कुछ नर्म थी. एक सन्नाटा सा छाया हुआ था बादी में. आकाश भी लाल रंग से लथपथ था. मानो सूरज के टुकड़े करके बिखेर दिए हो. कभी वही लालिमा आग की लपटों में तब्दील हो जाती हो ऐसा दृश्य. ये पहली बार तो नहीं था. ऐसा पहले भी हुआ था. हां मगर आज मंजर कुछ अलग था. 

थोड़ी देर में कोयले से भी काला तिमिर छा रहा था. कुछ लकड़िया एकदूसरे के सहारे से जल रही थी. कुछ लोग अपने द्वेष को मलते हुए शिकाय कर रहे थे. 
लोहे का वह ढांचा जैसे कोई फैसला देने वाले मुकाम की तरह तन के पीछे खड़ा था. 

कुछ अलफ़ाज़ निकले " जनाब, आज तो इतिहास ही बन गया. क्या खूब मज़ा चखाया. "

दूसरी ओर से और ज्यादा जुनून से आवाज़ आई " महाराज, इसी को कहते है, " सूत समेत वापिस करना. एक के बदले दो". ठहाके के साथ अट्टहास्य फ़ैल गया. 

एक राहगीर गुजर रहा था वहां से. आग देख कुछ उम्मीद के साथ वहाँ बेठ गया. किसी ने पूछ लिया " और भाई आज तो जश्न का मौका है, तू भी शेक ले". राहगीर चुप था. धीरे से बोला " कैसा जश्न? कुछ खास तो नहीं हुआ"

कोई झटपटाते हुए बोला" कैसा बौड़म है, इतना बड़ा साहस का काम हुआ है आज और ये कहता है कुछ नहीं हुआ"

राहगीर लंबी सांस लिए बोलता है" कल मानवीयता की हत्या हुई थी, आज इंसानियत का क़त्ल हुआ है". बोलते हुए उठ खड़ा हुआ. और एक धुंधली सी दिखाई देती रोशनी की और चल पड़ा. 

Wednesday, July 27, 2016

वर्चस्व

यह शब्द "वर्चस्व ", क्या मायने है इसके ? क्या हम इसे "पहचान " माने या फिर "विशेष " दर्जा .

हर व्यक्ति या व्यक्तिओ का झुंड इसे पाने में भारी  जद्दोजहद कर रहा है. और जब किसी तरह इसे हांसिल करने में कामयाब हो जाता है तो फिर किसी भी कीमत पर इसे बनाये रखने में सारा जोर लगा देता है .

जब हम झुंड/समूह की बात करते है  तो वह दो या फिर दो से अधिक व्यक्ति हो सकते है . यह झुंड कई प्रकार के पाए जाते है . दांये वाले , बांये वाले, विनिमय वाले, बिचोलिये , सतासीन , उदासीन , सांप्रदायिक, बिन सांप्रदायिक , सरकारी , गैर सरकारी , बुद्धिजीवी , बुधुजिवी , संवेदन शील , कट्टर पंथी , समज सेवक , समाज सेवक, बाजारवादी वगैरा वगैरा ....

पर सवाल आखिर ये उठता है की वर्चस्व क्यों ? क्या जरुरत है इसकी ?

मूल में अगर समजने जाये तो बात सिर्फ इतनी निकलके आती है. एक सोच को , विचार को क्रियान्वित करने के लिए अगर एक से ज्यादा लोगो की आवश्यकता है तो उन सब को किसी एक सोच या विचार से जोड़ना पड़ेगा ही . और बार बार समय समय पर उसी सोच को श्रेष्ठ ही मनवाना पड़ेगा. इस से बाकी सारे काम आसान हो जाते है . अगर हर बार किसी  भी कार्य के लिए झुंड में से मौलिक सोच से निर्णय लेने जाये तो सब को मनाने की क्षमता अभी नहीं है लोगो में और इसमें समय भी काफी लगता है .

अगर मानव को समजने जाए तो सरे क्रिया कलाप में एक से अधिक मानव की आवश्यकता है ही . और जैसे ऊपर झिक्र किया है , हर मानव में हर बात अपनी सोच से सार्थक साबित करने की क्षमता नहीं है . इसी कारणवश "वर्चस्व" की चाह जाग उठती है . यही झुंड की भी वर्चस्व को पाने की मूल वजह है. और अहम् की पुष्टि तो इसके साथ जैसे भेट के रूप में मिलती ही रहती है .

आज की समस्या पर जरा गौर फरमाईये . क्या है आज की समस्या :

  • वैश्विक उश्माकरण - मानव का प्रकृति पे वर्चस्व 
  • धार्मिक युद्ध - एक संप्रदाय का दुसरे संप्रदाय पे वर्चस्व 
  • विश्व युद्ध - राष्ट्र का दुसरे राष्ट्रों पर वर्चस्व 
  • प्रान्त / राज्य वाद : एक प्रदेश का दुसरे प्रदेश पर वर्चस्व 
  • जाती वाद : एक जाती का दुसरे जाती पर वर्चस्व 
  • राजकारण : एक पक्ष का दुसरे पक्ष पर वर्चस्व . पक्ष  का जनता पर वर्चस्व 
  • व्यापर : व्यापारी का उपभोक्ता पर वर्चस्व 
  • लिंग वाद : एक लिंग का दुसरे लिंग पर वर्चस्व 
  • परिवार का टूटना : रिश्तो में वर्चस्व 
इन सब समस्या की जड़ में जाये तो आखिर कार सब वर्चस्व स्थापित करने के लिए है और उसे टिके रखने के लिए ही सारा जाल बिछाया है

तो सवाल ये है की आखिर ये हमारे आप के जीने में कैसे समस्या है ? मेरी झिंदगी में इस से क्या फर्क पड़ता है ?  फर्क पड़ता है , और बहोत गहरा फर्क पड़ता है . इंसान में सबसे महत्वपूर्ण वस्तु क्या है जो उसे सृष्टि में सब जीवो से अलग करती है ???

सोचने की क्षमता .

मान लो  आप को वही सोचने पर मजबूर किया जाये जो अनजाने में आप नहीं सोचना चाहते. अगर किसी भी व्यक्ति या समूह पे आपको शाशन करना है , या अपनी मनमानी की बात मनवानी है तो उसकी सोच को तोड़ दो . जब मौलिक सोच ही नहीं रहेगी तो सोचोगे कहा से ? फिर तो वोही सोचोगे जो वोह दिखायेंगे या सुनायेंगे . जब यह भी तय हो जाये की क्या दिखाना या सुनाना है तो आप इसी में उलजकर रह जाते हो.

अगर एक बच्चे का उदहारण ले तो उसे अपने घर में अपनी जाती , धरम, खान पान , समाज सब को लेकर एक समज दी जाती है . या यु कहे थोपी जाती है . और बाकी का काम वातावरण कर देता है . चाहे वोह शिक्षा संकुल हो, बाज़ार , मनोरंजन . संचार माध्यम . सब एक पालतू नागरिक बनाने में अपना यथायोग्य योगदान देते है . ताकि यह पालतू नागरिक उस परिवार , समाज , देश, राष्ट्र या फिर वर्चस्व वादीओ के इशारे पर सोचे और चले .

बस इतना सा काम है . एक बार मानसिक रूप से गुलामी कायम हो गयी फिर जो मर्ज़ी चाहे करवा लो . दंगा फसाद , आन्दोलन, ब्लास्ट.. मतलब कोई भी अमानवीय काम करवा लो.  मानवीयता को अमानवीयता में तब्दील होने में १ सेकंड भी नहीं लगता

Mass Hypnotism करके एक शब्द आया है . इस पर सोच विचार करे तो पता  चलता है की बड़ी तादात में सोच पे काबू किया जाये तो मनचाहा काम करवा सकते है . इस में अगर कुछ मौलिक सोच वाले लोग है तो उन्हें भी इसी भीड़ में कैसे शामिल किया जाये उसी की दौड़ लगी रहती है .

सारी व्यवस्थाए भी ऐसे बनायीं जा रही है जिस से मानसिक गुलाम बनाना और भी आसान हो जाये . भारत की ३१% आबादी आज शहर में बस रही है जो आनेवाले कुछ १० वर्ष में ६० % हो जाएगी . वश्विक फलक पर भी यही चल रहा है .  क्या मिलेगा इस तरह के शहरीकरण से . जब गति इतनी ज्यादा होती है तो स्थिति का आंकलन करना कठिन होता है . रूबिक्स क्यूब पता है आपको. वोह छह रंग वाला चोरस टुकड़ा . उसे बस घुमाये जाओ उस आस में की सारे एक रंग के साथ में आयेंगे . पर आता नहीं तब तक आप का ध्यान जरुर मुद्दों पे से हट जाता है . यही काम गति का है . उल्जाये रखो . मूल मुद्दा गायब . प्राकृतिक संसाधन  गायब . वर्ग विग्रह बढ़ने दो . ऐसी व्यवस्था क्यों???

जवाब आत है "हर मानव यही चाहता है , ईसि लिए तो ये सब हो रहा है " पर असल में देखने जाये तो पता चलता है की हर मानव इतना दूरदर्शी नहीं है . दूसरा उसे इतनी फुर्सत ही नहीं है की ये सब सोचे . दोनों ही के मूल में वर्चस्व का मायाजाल है . वाही पेंतरे और तरकीबे . आदमी की सोच पे काबू और उसे व्यस्त रखो . फिर वाही व्यक्ति है , समाज , सम्प्रदाय . राज्य . राष्ट्र , या विश्व . यही पेंतरा चलता था, और चल रहा है .

कुछ जो मौलिक सोच से कुछ बदलने की चाह रखने वाले है जो इन वर्चस्ववादीओ के थपेड़ो से शांत होकर बेथ जाते है .

क्या इस से निकलने का कोई रास्ता है ? कोई उम्मीद है ? क्या कभी आदमी अपनी मौलिक सोच से जी पायेगा ? या फिर दुसरो पर वर्चस्व स्थापित करने में अपना सारा समय और उर्जा खर्च करता रहेगा ?

यक्ष प्रश्न :)







Wednesday, July 20, 2016

मज़ा

धुक... धुक... धुक.. धुक.. एक लय में चलती हुई मोटरसाइकिल और साथ में चार की मात्रा में तबले की ताल जैसा पथ्थरो का साथ. बिच में पानी का झरना जैसे खंजरी की कमी पूरी करती हुए शास्त्रीय संगीत में मंत्रमुग्ध करता था. परिचालक अपनी ह्रदय के नाद को बखूबी संगीत के तालमेल में डुबो कर आनंद ले रहा था.
एक पड़ाव पे आके रुकता है तो लगा जैसे संगीत कुछ देर छुट्टी मनाने चला गया. कह कर गया जैसे थोड़ी देर में आता हु. चाय की चुस्की लेते हुए जब सामने बेठे शक्श को देखा तो अपनी मानस पटल पे बहोत सारे चित्र पलट कर देख गया. अचानक से एक आवाज़ की रणकार गूंजी "ब्रिजेश????" सामने शक्श मुस्कुराया और बोला "निमित"! दोनों गले मिले और कहने लगे "बहोत साल हो गए " ब्रिजेश कहता है "काफी तर्रक्की कर ली तुमने तो दोस्त"
सामने से जवाब आया "नहीं. अभी भी वही हु, जहा पहले था " ब्रिजेश कुछ समज न पाया हो ऐसे आँख बड़ी कर के इशारा करने लगा. फिर जवाब आया "बचपन में साइकिल किराये पे लेते थे चंद घंटो के लिए और ज़िन्दगी के मज़े लूट ते थे. आज मोटरसाइकिल किराये पे लेकर पहाड़ो में घूम रहे है वोही ज़िन्दगी के मज़े तलाश ने में. चंद घंटे दिनों में तब्दील हो गए है. पर ज़िन्दगी अब भी समज नहीं आई. कुछ भी तो नहीं बदला. वंही तो खड़े है हम. तलाश अब भी तो ज़ारी ही है "
ब्रिजेश सुनकर सोच में पड़ गया. अब भी आखरी शब्द उसके ज़ेहन में बजते रहे "तलाश अब भी जारी है"
फिर से वोह मंत्रमुग्ध करने वाला संगीत खनक ने लगा..
धुक... धुक..... धुक.... धुक.... धुक.....

Monday, June 6, 2016

जशन



जशन 

सड़क बन ने का काम चल रहा  हो जहां , वहां  बड़ी सी पाइपे लगी होती है वोह याद है? जहाँ  बच्चे  लूका छुपी खेलते है, तो कभी उसमे  मजदुर रात बशर किया करते है. उस पाइप की तरह सुरंग सी लम्बी शेहनाई. उसकी एक छोर पर महाशय तान्येक. तान्येक कितने ही बेरिआत्रिक तबिबो की उम्मीद था. अगर आज तबिबो के  घर के ओवन, एलपीजी, चल रहे है तो उसमे तान्येक का योगंदान महत्वपूर्ण था. हलाकि तान्येक इन सब बातो का श्रेय हमेशा से मोमो वाले चाचा को दिया करता था. तान्येक का कहना था आज अगर मोमो वाले चाचा उसकी ज़िन्दगी में न आये होते तो वोह आज भी किसी प्रोटीन पाउडर के इश्तिहार का हिस्सा और किस्सा होता शायद. खैर वोह अपनी भारी भर्ख्म काया के लिए चाचा का शुक्रगुजार था. ऐसा खुश दिल था तान्येक.

शेहनाई को पुरे जोश से बजा रहा था तान्येक. लोग कितना भी ग्लोबल वार्मिंग, हवा का प्रदुषण वगैरा वगैरा बाते करते रहे . पर तान्येक तो इन सब से बेफिक्र होकर अपनी सरवाधिक क्षमता से हवा को अपने फेफड़ो में भर रहा था. और उसे जिस गति और लय से बहार फ़ेंक रहा था, एक मधुर सा संगीत गूंज उठ ता था. फेफड़ो की तस्वीर खिंची जाए उस समय तो कुछ सिगरेट की डिब्बी पे अंकित चित्र जैसे ही दशा होगी, पर जनाब आज ये अशुध हवा भी तान्येक को जिंदगी दे रही थी. इस तरफ तान्येक की शेहनाई और इस तरफ नगाड़ा. कुछ लाल और पीले रंग के वस्त्र से आच्छादित साधू और जुलुस. ये सब लोग नाचते गाते हुए जा रहे है. साथ में एक बक्शा भी है जिसे कुछ लोग उठाये हुए है. अपनी ही भाषा में गीत गाते हुए, मुस्कुराके नाचते हुए जा रहे है पहाड़ पर. वहा मोनास्ट्री के पीछे जंगल में सब इकठा हुए.

ये पुरे जुलुश को घुमंतू देख रहा है. जीस आंटी के घर में वोह रुका है उन्हें वोह पूछता है की हो क्या रहा है. तभी ताशी आते है जो आंटी के पति है. वोह आते ही संवाद शुरू करते है " तुम बहोत लकी हो" घुमंतू पूछता है क्यों ? वोह बोलते है "तुम्हे अलग अलग सभ्यता , और रिवाज देखने का शौक है ना . तुम्हारा लक अच्छा है . कल रात को ही यहाँ एक आदमी ने सुसाईड कर लिया . तुम को उसका आखरी जर्नी देखनो को मिलेगा . बहोत लकी हो तुम"   घुमंतू तय नहीं कर पा रहा था की इस बात को सुन के वोह खुश हो या किसी की मरने का गम मनाये. इस से पहले कुछ सोचा समजा जाये ताशी फिर से आंटी को बताना शुरू किया . "पता है उसका बीवी उसको छोड़ के चला गया. इसी लिए वोह उदास रहता था . फिर सब ठीक हो गया था " आंटी ने पूछा "उसकी बीवी वापस आ गयी थी ?" ताशी बोला "अरे नहीं. वोह उसके भाई के साथ भाग गयी फिर . फिर वोह ठीक हो गया था . उसके बाद में उसके भाई से उसने शादी कर ली" आंटी बोली "फिर क्या हुआ" तशी बोला "फिर क्या? फिर ये सब देख के वोह लकड़ी काटने जा रहा था और अचानक सुसाईड कर लिया. हमको लगता है वोह अन्दर से इस बात से खुश नहीं था " घुमंतू सोच में था अभी भी की कैसे ताशी अपने आप से ही सारी कड़ीयो को जोड़कर किसी बड़े न्यूज़ चैनल के  एक अव्वल दर्ज्जे के पत्रकार की भूमिका निभा रहा है. उसी बिच ताशी चिल्लाया "अरे भैया चलो जल्दी, आप को भी देखना है ना , चलो जल्दी से " घुमन्तु निकल पड़ा ताशी के साथ.

पहाड़ी चढ़कर मोनास्ट्री के पीछे जाना था . बिच में स्कूल आ रहा था . अब सुबह का प्रेयर का वक़्त था . प्रेयर के बाद "जन गन मन " शुरू हुआ. यहाँ पुरे हर्षौल्लास के साथ जुलुस जा रहा है . अचानक किसी महापुरुष ने सब को इशारा किया और सभी सच्चे राष्ट्रभक्त की तरह स्तब्ध होकर , पूरी तरह डेमोक्रेसी का पालन करते हुए खड़े हो गए. घुमंतू मन में सोच रहा था क्या इस बक्शे के अन्दर जो है क्या इसे भी सावधान में खड़ा करेंगे. फिर खुद ही सोचा अरे ये तो बिचारा खुद ही विश्राम में है इसे सावधान नहीं करेंगे तो भी देशद्रोही नहीं बनेगा. जैसे ही जन गन मन समाप्त हुआ, तान्येक ने फिर से राग जशन छेड़ दिया. जुलुश चल पड़ा. मोनास्ट्री के पीछे सब इकठा होकर लकड़ी लाने में व्यस्त हो गए. फिर लाल पीले वस्त्र वाले साधू कुछ मंतर बोलने लगे और कोल्ड्रिंक्स की बोतल के सामने कुछ विधि करने लगे . वहा मरने वाली की जो बीवी थी , या फिर जो अब उसके भाई की बीवी थी वोह फुट फुट कर रो रही थी . ताशी उसे देख कर बोल रहा था "कितना दुखी है यह , बहोत प्यार करती थी इस से. वोह तो उसके भाई ने इसे भगा दिया. नहीं तो इन दोनों की जोड़ी बहोत अच्छी थी " ताशी के बारे में पत्रकार की धारणा अब दृढ ही होती जा रही थी .

पीछे एक सज्जन बेठे हुए थे . बीडी के कश लगा रहे थे . चेहरे पे जुर्रिया , तेज़ आँखे , शांत मुख मुद्रा , उकडू बेठे हुए, काले कोट में न्याय के प्रतिक रूप मानो . घुमंतू एक आकर्षण से उनके पास चला गया . कुछ देर तक कोई बात नहीं हुई. दोनों बक्शे को जलते देखते रहे . घुमंतू फिर बोला "अजीब है ना , मरने के बाद भी लोग त्यौहार की तरह मनाते है ". बुज़ुर्ग गंगोत्री में से निकली हुए  गंगा की धारा सी कल कल आवाज़ में बोले "ज़िन्दगी में सिर्फ तीन ही त्यौहार है " घुमंतू बस उनके सामने देखता रहा . दूसरा कश लेते हुए वोह बोले "जब हम सांस लेते है, जब हम सांस छोड़ते है और सांस लेने और छोड़ने के बिच का समय. ये तीन जशन मना पाए तो ज़िन्दगी गुलज़ार है  नहीं तो फिर बीमार है " कुछ देर तलक यूँही बीडी के कश चलते रहे . घुमंतू सोच में पड़ गया . शब्द कम थे पर बात इतनी गहरी थी की जैसे सारे अध्यात्मिक दर्शन का फलसफा मिल गया हो.

घुमंतू सीढ़ी उतर रहा है , वही तान्येक अपनी शेहनाई बजा रहा है . तान्येक के  चेहरे का दबाव साफ़ झलक रहा था. और घुमंतू का जशन शुरू हो चूका था .

Friday, May 13, 2016

सफ़र

जिंदगी confirm न हुई तो क्या हुआ, RAC ही सही,
थोडा तुम सिकुड़ लो, थोडा हम सिकुड़ ले,
एक उम्र की ही तो बात है, युंही बशर हो जानी है

Sunday, April 10, 2016

चड्डी पहन के फूल (कमल) खिला है

(इस कहानी के सभी पात्र काल्पनिक है , इसका किसी भी जीवित व्यक्ति से या घटना से कोई संबंध नहीं है)


ये कहानि है एक अव्वल दरजे के  घुमक्कड़ की.

उसका जन्म भारत के एक गाँव में हुआ था. बचपन से ही ट्रेन को ताकता रहता था और सोचता था कंहा जाती होगी, ये जो लोग आ रहे है कंहा से आते होंगे. पिताजी की चाय की टपरी थी जिस से आसानी से प्रवेश मिल जाता था स्टेशन पे.

जब वोह गाँव में खेला करता था तो भी बहार जाने की ख्वाहिस लोगो को बताया करता था . एक दिन उसकी नजर एक टोली पर पड़ी. सब चड्डी पहने हुए थे और मस्ती से खेल रहे थे . उस बाल का भी मन हुआ और वोह भी खेल ने लग गया. वहा खेल के बाद बड़े मज़ेदार किस्से कहानिया सुनाते थे. बालक और भी प्रसन्न हुआ. एक दिन उसे पता चला की इस टोली में शामिल होने से खूब घुमने को मिलेगा. उसने फ़ौरन मन बना लिया टोली में शामिल होने का. बस चड्डी पहनी और निकल पड़ा. धीरे धीरे उसने देखा अगर उसे आगे बढ़ना है तो किस्से कहानी लोगो को सुनाने पड़ेंगे तब जाकर उसे घुमने का अवसर मिलेगा. बस उसको तो वही चाहिए था. धीरे धीरे कहानीकार भी बन गया. बड़ी मनभावक कहानी सुनाता था. उसका काम चल पड़ा. टोली में रोज़ वर्जिश करना, नयी नयी जगह जाना, हसी मजाक , ठहाके और कहानिया . उसे तो मानो स्वर्ग मिल गया.

पर घर वालो को चिंता हो रही थी . अब लड़का बड़ा हो गया था, शादी के लायक. तो सब ने सोचा की इसकी शादी करा देते है तो घर पे वापस आ जायेगा और यंही रहेगा . उन्हें क्या पता उस घुमक्कड़ के खुराफाती दिमाग में क्या चल रहा है . फिर भी शादी हुई. घुमक्कड़ का मन नही  लग रहा था . वोह चला गया किसी को घर पे बिना बताये. पहाड़ उसे बहोत अच्छे लगते थे . कुछ साल वंही गुजरे . फिर वंही कुछ काम मिल गया कहानी और कथा कहनेका . वोह भी किया. आखिर में टोली का जो मुख्या था उस के पास पहोंच गया . वहां से पुरे देश घुमने की योजना बनायीं और निकल पड़ा घुमने .

पर अब देश से बात बनी नहीं. उसे तो दुनिया भर घूमना था. उसको पता चला की टोली में तो सिर्फ देश ही घूम सकते है . पर इस टोली के ही कुछ दोस्त लोग थे जो दूसरी टोली में काम करते थे. दूसरी टोली का मुख्य काम था सब को कमल के हार पहनाना और अपनी टोली में शामिल कर लेना . बस उसके साथ साथ किस्से कहानी सुनाना, देश विदेश घूमना . बस यही तो चाहिए था घुमक्कड़ को. वोह फट से इस टोली में शामिल हो गया. और उसने पाया की विदेश जाने में खूब तैयारी करनी पड़ती है और मेहनत भी. बचपन से मेहनती तो था ही . लग गया परिश्रम करने . उसे लगा की अब घर जाकर ही काम करना चाहिए. वह उसे अच्छा अनुभव था कहानी सुनाके लोगो को मंत्रमुग्ध करने का . अपने राज्य में जाकर वह मुखिया बन गया . अब देखा की यहाँ कुछ साल बितान है तो क्या किया जाये . उसे गाँव का बचपन याद आया. वह हमेशा एक तरकीब किया करता था . जब भी उसे खेल में सब का मुखिया बन ना होता था तो वोह दो दल के लोगो में कुश्ती करवाया करता था. और जो सब से बड़ी संख्या में दल होता था उसे बहोत मदद भी करता था जीतने में . बस फिर क्या . बड़ी संख्या उसे मुख्या बनाये रखती . यही तरकीब उसने राज्य में भी अपनाई और अरसे तक मुख्या बना रहा.

उस समय काल में उसने विदेश जाने की तैयारी भी की. पर कुछ पर्ची  जो जरुरी थी वोह उसे नहीं मिली. बात  ये थी की कुश्ती की वजह से उसकी बदनामी हो गयी थी. सब को डर था ये हमारे वहा भी दंगल करवा देगा . अब अपनी छवि को सुधारना था. उसने फिर तरकीब निकाली . जब खेल का मुख्या हुआ करता था बचपन में तो सबको उसके दोस्त के बारे में बोला करता था . बहोत ही अज़ीज़ दोस्त था उसका. एकदम साफ़ सुथरा . अच्छी भाषा बोलने वाला . लोगो के लिए सड़क बनाता था , पानी पहोंचाता था , मकान बनवाता था . लोगो को बड़ा प्रिय था विकास. पर एक बात उनको नही पता थी. ये विकास बहोत ही चालाक था . वोह बहला फुसला कर लोगो से पैसे एंथ लेता था और फिर उसी में से उनके काम करता था. और एक भारी बचा हुआ हिस्सा घुमक्कड़ को देता था. घुमक्कड़ एक भी पैसा नहीं लेता था उसमे से , वोह सीधा अपनी टोली में जमा करवा देता था. दोनों टोली में . क्योंकि उसको तो विदेश जाना था .


घुमक्कड़ ने अपने वहाँ देखा की कुछ विकास के दोस्तों की भी एक टोली थी. वोह लोग व्यापर करते थे . उन्होंने घुमक्कड़ से दरख्वास्त रखी की आप भी विकास के दोस्त है हम भी. चलो कुछ साथ मिलके काम किया जाय. बस फिर वोह शुरू हो गया. विकास के नाम पे अब व्यापारियों को खूब मदद करने लगा और वादा भी लिया की समय आने पर उसे वापिस वोह लोग मदद करे. विकास के तो और भी दोस्त थे विदेश में .अब उसने ये भी सोचा विदेश में उसकी जान पहचान तो होनी चाहिए . बस सारे विकास के दोस्तों को बुलाता रहा अपने राज्य में . उनसे खूब दोस्ती बढाई. अब बारी थी देश का मुख्या बन ने की . उसने अपनी ही टोली के लोगो में से कुस्ती कर प्रबल दावेदार बन गया . अब सामने वाले दल में कोई जोर नहीं बचा था . सब विकास से प्रभावित थे ही . उसने सब किस्से कहानी से लोगो में विकास को ही अंतिम सुख बताया. लोग भाव विभोर होके विकास को देख ने के लिए तरस गए. जब की घुमक्कड़ ये बताता रहा की विकास चारो तरफ दिखेगा . बस  देश भर ने उसे विकास  के मोह में आकर मुख्या बनाया . उसमे विकास के व्यापारी मित्रो ने खूब मदद भी की,

आज वोह देश का मुख्या आखिर बन ही गया . अब तो उसे विदेश जाने की पक्की पर्ची भी मिल गयी . क्योकि विकास के दोस्त सारे देशो के मुख्या भी तो थे . अब वोह दुनिया भर की शैर करता है . अपनी कहानी, किस्से अभी भी लोगो को सुनाता है . विकास को तो अब भी किसी ने देखा नहीं है. कोई कहता है विकास है ही नहीं  दुनिया में . पर घुमक्कड़ आज भी अपनी मन की बातो से लोगो को मना लेता है की विकास है. इसी के साथ उसके जीवन में अथाग परिश्रम के बाद आज वोह अपनी सपनो की जिंदगी जी रहा है. विदेशो में घुमना , तस्वीरे खींचना , कथाकार बन जाना , व्यंजनों का स्वाद लेना, नयी नयी वेश भूषा , नए विकास के दोस्तों से परिचय . और तरकीब वही है दो दल को कुश्ती करा रहा है. जो ज्यादा संख्या में है उसको चुपके से मदद कर देता है ताकि वोह मुख्या बना रहे . और इस कोशिश में उसकी मदद चड्डी वाली टोली , कमल का हार पहनाने वाली टोली और विकास , ये सब उसके साथी है.

चड्डी पहन के फूल (कमल) खिला है , फूल  खिला है..... देश विदेश में बात चली है , चड्डी पहन के फूल खिला है....