मंथन
घटनाएं हर स्तर पर घटती रहती है कुछ व्यक्तिगत होती है तो कुछ पारिवारिक घटनाएं, कुछ सामाजिक तो कुछ प्राकृतिक। इन सभी का प्रभाव भी हर स्तर पर दिखाई पड़ता है।
ऐसी ही एक घटना आज संपूर्ण मानव जाति के सामने आई है "कोरोना"। एक विषाणु, जिसे हम देख भी नहीं सकते। यह विषाणु से जो समस्याएं पैदा हो रही है वह घटना के रूप में देखें, तो हमारा ध्यानाकर्षण ही करा रही है कि हम कोई गलती तो नहीं कर रहे, हम इससे बेहतर जी सकते हैं क्या? क्या इस भाग दौड़ में कोई जरूरी और अहम बात छूट तो नहीं रही?
आइए देखते हैं क्या हो रहा हैं आखिर।
प्रकृति:-
इन दिनों जिस तरह प्रकृति में बदलाव आ रहा है, उस से समझ में आता है कि प्रकृति में खुद को ठीक करने की एक अद्भुत व्यवस्था है। जैसे ही मानवजाती का हस्तक्षेप कम हुआ, प्रकृति अपने आप ही संतुलित हो रही है। उदाहरण के रूप में नदियों का पानी साफ हो रहा है, हवा की गुणवत्ता सुधार रही है, यहां तक कि ओजोन की परत में जो छेद हो रखा है वह भी भर रहा है। इतने बढ़िया परिणाम, वह भी हमारे कुछ किए बिना। क्या हमसे प्रकृति को समझने में कहीं चूक तो नहीं हो गई? सोचो यदि ऐसे ही प्रकृति साफ बनी रहे बिना कोई प्रदूषण के तो! जो वातावरण हमारे लिए पोषक भी हो एवम् पूरक भी हो तो। क्या इसके लिए हमको कोई कदम नहीं उठाने चाहिए या नहीं? क्या प्रकृति के नियमो को समझ कर ऐसा जिया जा सकता है जिस से हम भी बने रहे, प्रकृति भी बनी रहे हमेशा हमेशा के लिए? आने वाली सभी पेढ़ियो को उत्तरोत्तर बेहतर से बेहतर हवा, पानी मिले यह संभव हो सकता है क्या? प्रकृति में जो तापमान है या जो दबाव है, ऋतुएं है एवम् खनिज है, क्या हम उसे संतुलित बने रहने में कोई सहयोग कर सकते है? क्या प्रकृति को संतुलित बने रहने के लिए मानवजाती सहयोग करना चाहिए? यह सब सवाल है मानव जाति के लिए। यदि इन सभी सवालों का उत्तर यह आता है हां, हमे समझना है कि कैसे हम मिट्टी, धातु, खनिज, वनस्पति, जीव जानवर सभी प्रकृति कि अवस्था के साथ पूरकता के साथ जी पाए। तो उसके साथ जीने के को नियम है उसे समझना पड़ेगा। जैसे जैसे समझ में आएगा, हम वैसे वैसे अपनी पूरकता निभाते जाएंगे और अक्षुण्ण रूप से हम साथ साथ जी पाएंगे।
समाज :-
इन दिनों कोरोना महामारी के कारण "सामाजिक दूरी" शब्द को हम पहली बार महसूस कर रहे है। मूल में आशय तो भौतिक दूरी का ही है, एक दूसरे के पास आने में एक निश्चित अंतर बना कर रखना। इन सब के साथ ही सभी अपने परिवार में ही रहने के लिए बाध्य हो गए। हमारे गली, मोहल्ले, बाजार, मिलना जुलना, त्योहार सभी थम गए। हालाकि इंटरनेट के आविष्कार से हम एक दूसरे को देख लेते है, बातचीत कर लेते है। पर फिर भी जब पता चलता है कि हमारा कोई अपना परेशानियों से घिरा है लगता है दौड़ के उसके पास पहोंचा जाए। पर इन दिनों की परिस्थिति के कारण हम मिल भी नहीं सकते। यहां तक आखरी समय में अपने स्वजन कि मृत्यु पर भी नहीं जा पा रहे। क्या यह सब हमको यह ध्यान नहीं दिला रहा को हमको सामाजिकता की कितनी जरूरत है? क्या हम बिना संबंधों के निर्वाह किए जी पाएंगे? मान लो हमको जो भी वस्तुएं चाहिए वह सब एक जगह उपलब्ध करा दिए जाए, फिर भी किसी अपने के लिए कुछ करने का, उनको सहयोग करने का या उनके साथ ममता, स्नेह, सम्मान आदि मूल्यों का निर्वाह किए बिना हम तृप्त हो पाएंगे? क्या इसकी कमी खलती है? क्या अपनों के साथ जीना अपनी कोई भी भौतिक आवश्यकता से ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है? क्या हमे इन संबंधों में कैसे तृप्ति पूर्वक जीना यह समझना आवश्यक लगता है? क्या हम संबंधों को समझ कर उसे अच्छे से निर्वाह करना चाहते है?
परिवार :-
सामाजिक दूरी के बाद आता है परिवार। आज हम सब लोग जिन भी लोगो के साथ घर में है वह है परिवार। यहां तक कि जो लोग जहां फसे है, वहां से अपने परिवार तक ही पाहोंचना चाहते है। यहां जो अपने परिवार के साथ है, वह परिवार में ही अपना समय कुछ करते हुए बिता रहे है। परिवार में जो सदस्य है उनके साथ भी निर्वाह होना है, व्यहवार होना है और उसको समझना भी जरूरी है यह ध्यान जा रहा है। परिवार को छोड़कर बाहर जी लेंगे यह हो नहीं पाएगा यह भी समझ आ रहा है कि नहीं? यदि परिवार में जीना है तो उसे समझना, उसमे अपने जिम्मेदारी को समझना यह भी एक जरूरत है कि नहीं? उसके साथ परिवार कि मानसिक एवम् भौतिक जरूरतों को पूरी करना यह भी जरूरी है कि नहीं? यह सब इस समय ध्यान जाता है कि नहीं?
मानव :-
इस समय स्वास्थ्य संबंधी जो विपदा आ पड़ी है उसमे हमको यह सोचने का भी अवसर मिला है कि आखिर कार में क्या हूं? मै क्या चाहता हूं? मै खुश रहना चाहता हूं तो उसमे मैंने अभी तक जो प्रयास किए उसमे कहा तक पहुंचा? जो भी चीजे मुझे चाहिए थी वह अब ना मिलने पर भी क्या में खुश हूं? क्या मै कुछ भी नहीं करता हूं और अपने कर्तव्यों से भागता हूं तो क्या उस से खुश हूं? आखिर क्या है जो छूट रहा है? क्या मै जो चाहता हूं उसे में समझकर पा सकता हूं? क्या सभी जो चाहते है वह पा सकते है? क्या हम सभी एक जैसा ही चाह रहे है? इन सब प्रश्नों से मुझे समझना है यह निश्चय बन रहा है क्या?
व्यवस्था :-
आज इस घटना से एक ध्यान तो गया की हमारी मूलभूत जरुरते क्या है? जैसे हमे शुद्घ हवा, पानी, अन्न, औषधि ये सब चाहिए जो हमारे शरीर को स्वस्थ्य बनाए रखे। क्या हमे रोटी, कपड़ा, मकान के लिए आवश्यक वस्तुएं सरलता से मिल पाए ऐसी व्यवस्थाएं है क्या? जैसे आज की स्थिति में हमको सब्जी, फल, दूध, तेल ये सब चीजें आसानी से उपलब्ध है क्या? क्या इन चीजों को हम तक पहोंचाने में कोई परेशानी हो रही है? यदि यह सारी चीजे हमारे आस पास नजदीक में ही उपलब्ध हो जाए तो कैसा रहेगा? यदि हम सब इन उत्पादनों में कोई सहयोग कर पाते तो कैसा होता? क्या हमारा परिवार इन चीजों में से कुछ उत्पादन कर पाए तो कैसा होगा?
आज बहुत सारी वस्तुओं के बिना हम जी रहे है। नाही कोई रेस्टोरेंट खुला है, नाही कोई सिनेमा हॉल। हम घर में ही नए नए पकवान बने रहे है, नए सिरे से नए काम सीख रहे है। क्या हम व्यवस्था को समझ कर हमसे को अव्यवस्था खड़ी हुई है उसपे पुनर्विचार कर नहीं सकते? क्या मानवजाती, मानव को समझ कर और इस पूरे धरती पे मानव कि भूमिका को समझ कर साथ साथ उत्सवित होकर जी सकते है?
मानव जाति को सौभाग्य से इन सभी को समजने के लिए एक प्रस्ताव उपलब्ध है। श्री ए.नागराज जी द्वारा प्रस्तावित मध्यस्थ दर्शन (सह अस्तित्ववाद) इस धरती पर रहने वाले सभी मानव के समझने एवम् नित्य उत्सव पूर्वक साथ साथ जीने के लिए है। यदि इस घटना से हमे खुद को और हम से जुड़े हुए सभी पहलू को समझने की आवश्यकता लगती है तो इसे समझ ने के लिए प्रयास करते है। यही इस घटना कि सार्थकता हो सकती है।
लेखन एवम् जिम्मेदारी
जिगर
अध्येता: - मध्यस्थ दर्शन ( सह अस्तित्ववाद)
अधिक जानकारी हेतु:-
http://madhyasth-darshan.info/