Friday, September 30, 2016

उम्मीद

आज शाम कुछ नर्म थी. एक सन्नाटा सा छाया हुआ था बादी में. आकाश भी लाल रंग से लथपथ था. मानो सूरज के टुकड़े करके बिखेर दिए हो. कभी वही लालिमा आग की लपटों में तब्दील हो जाती हो ऐसा दृश्य. ये पहली बार तो नहीं था. ऐसा पहले भी हुआ था. हां मगर आज मंजर कुछ अलग था. 

थोड़ी देर में कोयले से भी काला तिमिर छा रहा था. कुछ लकड़िया एकदूसरे के सहारे से जल रही थी. कुछ लोग अपने द्वेष को मलते हुए शिकाय कर रहे थे. 
लोहे का वह ढांचा जैसे कोई फैसला देने वाले मुकाम की तरह तन के पीछे खड़ा था. 

कुछ अलफ़ाज़ निकले " जनाब, आज तो इतिहास ही बन गया. क्या खूब मज़ा चखाया. "

दूसरी ओर से और ज्यादा जुनून से आवाज़ आई " महाराज, इसी को कहते है, " सूत समेत वापिस करना. एक के बदले दो". ठहाके के साथ अट्टहास्य फ़ैल गया. 

एक राहगीर गुजर रहा था वहां से. आग देख कुछ उम्मीद के साथ वहाँ बेठ गया. किसी ने पूछ लिया " और भाई आज तो जश्न का मौका है, तू भी शेक ले". राहगीर चुप था. धीरे से बोला " कैसा जश्न? कुछ खास तो नहीं हुआ"

कोई झटपटाते हुए बोला" कैसा बौड़म है, इतना बड़ा साहस का काम हुआ है आज और ये कहता है कुछ नहीं हुआ"

राहगीर लंबी सांस लिए बोलता है" कल मानवीयता की हत्या हुई थी, आज इंसानियत का क़त्ल हुआ है". बोलते हुए उठ खड़ा हुआ. और एक धुंधली सी दिखाई देती रोशनी की और चल पड़ा. 

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