Wednesday, July 27, 2016

वर्चस्व

यह शब्द "वर्चस्व ", क्या मायने है इसके ? क्या हम इसे "पहचान " माने या फिर "विशेष " दर्जा .

हर व्यक्ति या व्यक्तिओ का झुंड इसे पाने में भारी  जद्दोजहद कर रहा है. और जब किसी तरह इसे हांसिल करने में कामयाब हो जाता है तो फिर किसी भी कीमत पर इसे बनाये रखने में सारा जोर लगा देता है .

जब हम झुंड/समूह की बात करते है  तो वह दो या फिर दो से अधिक व्यक्ति हो सकते है . यह झुंड कई प्रकार के पाए जाते है . दांये वाले , बांये वाले, विनिमय वाले, बिचोलिये , सतासीन , उदासीन , सांप्रदायिक, बिन सांप्रदायिक , सरकारी , गैर सरकारी , बुद्धिजीवी , बुधुजिवी , संवेदन शील , कट्टर पंथी , समज सेवक , समाज सेवक, बाजारवादी वगैरा वगैरा ....

पर सवाल आखिर ये उठता है की वर्चस्व क्यों ? क्या जरुरत है इसकी ?

मूल में अगर समजने जाये तो बात सिर्फ इतनी निकलके आती है. एक सोच को , विचार को क्रियान्वित करने के लिए अगर एक से ज्यादा लोगो की आवश्यकता है तो उन सब को किसी एक सोच या विचार से जोड़ना पड़ेगा ही . और बार बार समय समय पर उसी सोच को श्रेष्ठ ही मनवाना पड़ेगा. इस से बाकी सारे काम आसान हो जाते है . अगर हर बार किसी  भी कार्य के लिए झुंड में से मौलिक सोच से निर्णय लेने जाये तो सब को मनाने की क्षमता अभी नहीं है लोगो में और इसमें समय भी काफी लगता है .

अगर मानव को समजने जाए तो सरे क्रिया कलाप में एक से अधिक मानव की आवश्यकता है ही . और जैसे ऊपर झिक्र किया है , हर मानव में हर बात अपनी सोच से सार्थक साबित करने की क्षमता नहीं है . इसी कारणवश "वर्चस्व" की चाह जाग उठती है . यही झुंड की भी वर्चस्व को पाने की मूल वजह है. और अहम् की पुष्टि तो इसके साथ जैसे भेट के रूप में मिलती ही रहती है .

आज की समस्या पर जरा गौर फरमाईये . क्या है आज की समस्या :

  • वैश्विक उश्माकरण - मानव का प्रकृति पे वर्चस्व 
  • धार्मिक युद्ध - एक संप्रदाय का दुसरे संप्रदाय पे वर्चस्व 
  • विश्व युद्ध - राष्ट्र का दुसरे राष्ट्रों पर वर्चस्व 
  • प्रान्त / राज्य वाद : एक प्रदेश का दुसरे प्रदेश पर वर्चस्व 
  • जाती वाद : एक जाती का दुसरे जाती पर वर्चस्व 
  • राजकारण : एक पक्ष का दुसरे पक्ष पर वर्चस्व . पक्ष  का जनता पर वर्चस्व 
  • व्यापर : व्यापारी का उपभोक्ता पर वर्चस्व 
  • लिंग वाद : एक लिंग का दुसरे लिंग पर वर्चस्व 
  • परिवार का टूटना : रिश्तो में वर्चस्व 
इन सब समस्या की जड़ में जाये तो आखिर कार सब वर्चस्व स्थापित करने के लिए है और उसे टिके रखने के लिए ही सारा जाल बिछाया है

तो सवाल ये है की आखिर ये हमारे आप के जीने में कैसे समस्या है ? मेरी झिंदगी में इस से क्या फर्क पड़ता है ?  फर्क पड़ता है , और बहोत गहरा फर्क पड़ता है . इंसान में सबसे महत्वपूर्ण वस्तु क्या है जो उसे सृष्टि में सब जीवो से अलग करती है ???

सोचने की क्षमता .

मान लो  आप को वही सोचने पर मजबूर किया जाये जो अनजाने में आप नहीं सोचना चाहते. अगर किसी भी व्यक्ति या समूह पे आपको शाशन करना है , या अपनी मनमानी की बात मनवानी है तो उसकी सोच को तोड़ दो . जब मौलिक सोच ही नहीं रहेगी तो सोचोगे कहा से ? फिर तो वोही सोचोगे जो वोह दिखायेंगे या सुनायेंगे . जब यह भी तय हो जाये की क्या दिखाना या सुनाना है तो आप इसी में उलजकर रह जाते हो.

अगर एक बच्चे का उदहारण ले तो उसे अपने घर में अपनी जाती , धरम, खान पान , समाज सब को लेकर एक समज दी जाती है . या यु कहे थोपी जाती है . और बाकी का काम वातावरण कर देता है . चाहे वोह शिक्षा संकुल हो, बाज़ार , मनोरंजन . संचार माध्यम . सब एक पालतू नागरिक बनाने में अपना यथायोग्य योगदान देते है . ताकि यह पालतू नागरिक उस परिवार , समाज , देश, राष्ट्र या फिर वर्चस्व वादीओ के इशारे पर सोचे और चले .

बस इतना सा काम है . एक बार मानसिक रूप से गुलामी कायम हो गयी फिर जो मर्ज़ी चाहे करवा लो . दंगा फसाद , आन्दोलन, ब्लास्ट.. मतलब कोई भी अमानवीय काम करवा लो.  मानवीयता को अमानवीयता में तब्दील होने में १ सेकंड भी नहीं लगता

Mass Hypnotism करके एक शब्द आया है . इस पर सोच विचार करे तो पता  चलता है की बड़ी तादात में सोच पे काबू किया जाये तो मनचाहा काम करवा सकते है . इस में अगर कुछ मौलिक सोच वाले लोग है तो उन्हें भी इसी भीड़ में कैसे शामिल किया जाये उसी की दौड़ लगी रहती है .

सारी व्यवस्थाए भी ऐसे बनायीं जा रही है जिस से मानसिक गुलाम बनाना और भी आसान हो जाये . भारत की ३१% आबादी आज शहर में बस रही है जो आनेवाले कुछ १० वर्ष में ६० % हो जाएगी . वश्विक फलक पर भी यही चल रहा है .  क्या मिलेगा इस तरह के शहरीकरण से . जब गति इतनी ज्यादा होती है तो स्थिति का आंकलन करना कठिन होता है . रूबिक्स क्यूब पता है आपको. वोह छह रंग वाला चोरस टुकड़ा . उसे बस घुमाये जाओ उस आस में की सारे एक रंग के साथ में आयेंगे . पर आता नहीं तब तक आप का ध्यान जरुर मुद्दों पे से हट जाता है . यही काम गति का है . उल्जाये रखो . मूल मुद्दा गायब . प्राकृतिक संसाधन  गायब . वर्ग विग्रह बढ़ने दो . ऐसी व्यवस्था क्यों???

जवाब आत है "हर मानव यही चाहता है , ईसि लिए तो ये सब हो रहा है " पर असल में देखने जाये तो पता चलता है की हर मानव इतना दूरदर्शी नहीं है . दूसरा उसे इतनी फुर्सत ही नहीं है की ये सब सोचे . दोनों ही के मूल में वर्चस्व का मायाजाल है . वाही पेंतरे और तरकीबे . आदमी की सोच पे काबू और उसे व्यस्त रखो . फिर वाही व्यक्ति है , समाज , सम्प्रदाय . राज्य . राष्ट्र , या विश्व . यही पेंतरा चलता था, और चल रहा है .

कुछ जो मौलिक सोच से कुछ बदलने की चाह रखने वाले है जो इन वर्चस्ववादीओ के थपेड़ो से शांत होकर बेथ जाते है .

क्या इस से निकलने का कोई रास्ता है ? कोई उम्मीद है ? क्या कभी आदमी अपनी मौलिक सोच से जी पायेगा ? या फिर दुसरो पर वर्चस्व स्थापित करने में अपना सारा समय और उर्जा खर्च करता रहेगा ?

यक्ष प्रश्न :)







No comments:

Post a Comment